Monika garg

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लेखनी कहानी -03-Jul-2023# तुम्हें आना ही था (भाग:-21)#कहानीकार प्रतियोगिता के लिए

गतांक से आगे:-


कनक बाई ने जब ये सुना तो सन्न रह गयी और चिंतित होते हुए बोली,," ये आप क्या कह रहे हैं राज शिल्पी जी ।मेरी चंद्रिका को आप चाहते हो।ऐसा हो ही नहीं सकता वो राज नर्तकी है सबसे पहला हक राजा का होता है उसके जीवन पर । मैंने तो उसे राज नर्तकी बना दिया पर मुझे नहीं लगता राजा वीरभान इस बात की आज्ञा आपको देंगे कि जाओ खुशी खुशी चंद्रिका के साथ अपना घर बसा लो।"


"महोदया मैं ही नहीं चंद्रिका भी मुझे दिलोजान से चाहती है । प्यार व्यक्ति को देखकर नहीं किया जाता वो बस हो जाता है।"


तभी कनक बाई ने चंद्रिका को आवाज दी ।वह ऊपर के कमरे में आराम कर रही थी ।वह आराम आराम से चल कर अपनी मां के पास आई ज्वर की अधिकता के कारण उससे बोला भी नहीं जा रहा था ।उसने अपनी मां के पास बैठे देवदत्त को जैसे ही देखा उसके शरीर में जैसे प्राण लौट आये।वह पास आकर बोली,"आप…….और यहां,इस वक्त?"


देवदत्त आंखों ही आंखों में चंद्रिका को समझा रहा था शायद कि प्रिय पहले मर्ज देती हो फिर अगर उपचार करवाने आयें तो पूछती हो मर्ज क्या है ?

देवदत्त चंद्रिका को एकटक देखता रहा और उधर चंद्रिका भी देव को एकटक निहार रही थी जैसे आंखों ही आंखों में वार्तालाप हो रहा था । बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से चंद्रिका का ज्वर भी शांत हो गया ।जो लड़की धीरे-धीरे चलकर अपनी मां के पास आई थी वो अब ऐसे लग रही थी जैसे कुछ हुआ ही नहीं था।


ये सब कनक बाई अपनी अनुभवी आंखों से निहार रही थी।वो समझ गयी थी कि इन का प्यार जन्म जन्मांतर का है।अगर इसे रोका गया तो शायद कोई तबाही इस राज्य को लील ना ले।उसने मन ही मन राजा वीरभान से बात करने का निर्णय लिया। प्रत्यक्ष में वह देवदत्त। से बोली,


"ऐसा है आप अब महल लौट जाइए।वरना किसी को अगर जरा सी भी भनक हो गयी तो बात बिगड़ सकती है।"


देवदत्त ना चाहते हुए भी मन मसोस कर उठ खड़ा हुआ और वह तब तक पीछे मुड़ मुड़ कर चंद्रिका को देखता रहा जब तक वह आंखों से दिखाई देती रही।


देवदत्त महल लौट आया पर उसे ऐसे लग रहा था जैसे वह अपना सर्वस्व लाल हवेली में छोड़ आया हो।इधर चंद्रिका को भी पुनः ज्वर चढ़ गया । जैसे वो ज्वर उसे अपने प्रियतम के बिछोह में चढ़ा हो।सारी रात कनक बाई उसके सिर पर ठंडे पानी से टकोर करती रही पर ज्वर था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था।



उधर देवदत्त को भी बिछोह के कारण ज्वर चढ़ आया।ये बात चंद्रिका को अपनी दासी से पता चली ।ये सुन कर वह जल बिन मछली की तरह देवदत्त से मिलने के लिए छटपटाने लगी।ये सब उसकी मां कनक बाई से बर्दाश्त नहीं हो रहा था वो मन में सोचें जा रही थी कि कोई इस क़दर भी एक दूसरे से प्यार कर सकता है । आखिरकार संध्या वेला के समय वह चंद्रिका के कक्ष में गयी और बोली,

" बिटिया। मैं देख रही हूं तुम राज शिल्पी देवदत्त से मिलने को आतुर हो पर बिटिया अगर राजा जी को इस बात का…."


"मां मैं मर जाऊंगी देवदत्त के बगैर वो मेरी नस नस में समाया हुआ है ।उसे एक बार ना देखूं तो आत्मा को चैन नहीं मिलता । मां मेरा देवदत्त मेरे बिछोह में ताप से जूझ रहा है । यहां तो तुम हो  मेरी देखभाल के लिए पर वहां वो नितांत अकेला है। मां…. मां  कोई तो उपाय करो जो मेरा उससे मिलने हो जाए।"

यह सुनकर कनक बाई गहरी सोच में पड़ गयी फिर अचानक से बोली,


"बिटिया एक रास्ता है पर तुम वादा करो उसका गलत उपयोग नहीं करोगी ।एक मां अपनी बेटी को कभी ऐसी बात नहीं बताएंगी जिस से उस की पलकें शर्म से झुक जाएं।पर आज मैं तुम को एक ऐसे मार्ग के विषय में बताऊंगी जो कभी कभी मैं रात बेरात जब राजा जी मुझे महल में बुलाते थे तब इस्तेमाल करती थी ताकि मेरे आने की खबर महल में किसी को ना हो।"


"मां …. तुम्हारा बड़ा अहसान होगा मुझ पर कृपा करके वो रास्ता मुझे बता दो जिससे मैं अपने देवदत्त की सुध-बुध लेकर हवेली लौट आऊं।"


"जाओ बिटिया थोड़ा सज संवर लो इतने में देवदत्त के लिए कुछ फल और औषधि एक थैले में डाल देती हूं।"


यह कहकर कनक बाई नीचे गयी और एक थैले में खाने पीने कि सामान और औषधि ले आई ।जब कनक बाई कमरे में पहुंची तो देखकर हैरान रह गयी कि देवदत्त से मिलने की चाहत ने चंद्रिका का ज्वर शांत कर दिया था और वो पहन ओढ़ कर स्वर्ग से उतरी अप्सरा जैसी लग रही थी ।


तब तक शाम गहरा चुकी थी । कनक बाई ने उस आदमकद शीशे में ्कुछ ढूंढा और  खट से शीशा दाई ओर सरक गया।उसने चंद्रिका को समझाते हुए कहा,


"बिटिया ये रास्ता सीधा महल में जहां राज शिल्पी का कक्ष है उससे थोड़ी दूर एक बग़ीचे में खुलता है ।सावधानी से जाना क्योंकि किसी बाहरी आदमी को ये पता नहीं चलता कि वहां पर कोई गुप्त दरवाजा भी है क्योंकि बाग में एक छोटी बनावटी पहाड़ी बनाई गयी है जो बाग के सौंदर्य को चार चांद लगाती है पर वो वास्तव में एक गुप्त मार्ग है लाल हवेली तक आने का ।मुझ से वादा करो आज के बाद कभी भी इस दरवाजे का इस्तेमाल नहीं करोगी जब तक मैं राजा वीरभान से तुम दोनों के लिए बात नहीं कर लेते।"


तब तो जल्दी जल्दी में जो मां ने वचन कहे थे उन सब के लिए हामी भरती रही और वह थैला उठा कर अपने प्रियतम से मिलने चल पड़ी 

वह उस गुप्त मार्ग से चलती जा रही थी ।उसे थोड़ा थोड़ा डर भी लग रहा था क्योंकि वह पहले कभी ऐसी सुरंग में से नहीं गयी थी । चलते चलते वो सुरंग के मुहाने पर पहुंची तो एक दरवाजा दिखाई दिया उसने वो दरवाजा पार किया तो अपने आप को एक पहाड़ी पर खड़े पाया और सामने महल में जगमग हो रही थी ।


कहानी अभी जारी है…………..

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1 Comments

Gunjan Kamal

16-Aug-2023 02:22 PM

Nice part 👌

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